गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

सुभीता खोली के नवा चिंतन !!!

संगी हो जोहार लेवो,

अड़बड बेर होगे कुछु लिख पढ़ नई पाए हंव, काबर के लिखे के सुभीता नई मिलिस. चलो आज सुभीता के सुरता होगे ता ऐखरे  उपर चर्चा कर जाये. हमर एक झिन मयारू मित्र हे सूर्यकांत गुप्ता जी, जौउन हा बने-बने गोठ ला गोठियाथे. एक दिन हमन फोन मा गोठियात रहें ता वो हा किहिस "ये दे सुभीता खोली  के बेरा होगे महाराज, अब मै  जात हंव". ता महू संसो मा पर गेंव, काला "सुभीता खोली" कहत हे. पुछेंव ता "लेटरिंग खोली" के नांव सुभीता खोली धरे हंव किहिस. हे भगवान कहिके माथ ला धार डारेंव, ओखर बाद  महू सोच मा पर गेंव, अऊ मोर चिंतन अब सुभीता खोली डाहर चल दिस. हमर जीवन मा सुभीता खोली के महत्वपूर्ण स्थान हवे, ता मैं हिसाब लगायेंव के एक मनखे हाँ रोज सुभीता खोली ला १० मिनट देते ता एक महिना मा ३०० मिनट अऊ एक साल मा 36 सौ मिनट होगे अऊ ओकर उमर के औसत निकालबे ता जियादा ले जियादा ६० साल जियत हे ता २१६००० मिनट याने १५० दिन देते, अऊ इही १५० दिन मा अपन जिनगी के महत्वपूर्ण निर्णय ला लेथे, जब मनखे हाँ  सुभीता खोली मा रहिथे  ता एक से एक विचार उमड़-घुमड़ के डीमाग मा आथे. कभू-कभू अईसन होथे के जिनगी के सबले जरुरी फैसला उपर मुहर सुभीता खोलीच मा लग जथे.  
बड़े-बड़े साहितकार मन अपन उपन्यास के प्लाट ला सुभीता खोली मा सोच डारथे अऊ बैठे-बैठे जम्मो कहानी गढ़ डारथे. सुभीता खोली के चिंतन मा नवा-नवा गीत, कविता, ददरिया के जन्म हो जथे. अऊ उही हाँ हिट हो जथे. हमर एक झिन नामी साहितकार हाँ एक बेर मोला एखर महत्त्व के बारे में बताये रिहिस ता मैं हाँ धियान नई दे रेहेंव. एक दिन महू हा टीराई मार के देखेंव ता जौउन कविता के सुभीता खोली मा जन्म हुईसे तेहाँ हिट होगे. तब ले सुभीता खोली के बने उपयोग ला मै करथंव, पहिले कविता ला लिखँव ता संपादक मन हा " कृपया भाव बनाए रखें, आपकी कविता बहुत अच्छी है लेकिन हम इसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. आप अन्यत्र उपयोग कर सकते हैं" अईसने लिख के सादर वापस भेज देवे. ता मोला बड अलकरहा लगे. अतेक मेहनत  करके लिखबे अऊ अपने कविता ला कौउनो "अन्यत्र उपयोग" करे के स्वतंत्रता दे थे, ता सुन के जिव हाँ कौउवा जथे. लेकिन जब ले सुभीता खोली के चिंतन चालू हुईसे, तब ले ये समस्या के निवारण होगे. काबर के मैं नई जानत रेहेंव के जतका पत्र-पत्रिका वाले संपादक मन हे जम्मो हाँ सुभीता खोली के चिन्तक हवे. अब दरुवाहा संग दरुवाहा हो जाबे, तभे तोर गोठ हाँ ओखर समझ मा आही अऊ डीमाग हाँ पुरही, ता एखर मरम ला मैं जान डारेंव अऊ सुभीता खोली के चिन्तक संपादक मन मोर कविता ला समझे ला धरिस अऊ समझ के छापे ला धरिस.
सुभीता खोली के महिमा के जतका बखान करबे ओतके कमती हवे. एक बेर में हाँ मकान बनावत रेहेंव, अब इंजिनियर ला ब्लाबे अऊ नक्शा ला बनवाबे ता आनी-बानी के फ़ीस ला मांगथे, ता मैं हाँ सोच डारेंव हमू ता पढ़े लिखे हन, हम हा काबर नक्शा ला नई बनाये सकन, अईसे सोच के नक्शा ला मीही बनायेंव अऊ ठेकेदार ला बला के नींव के चिन्ह दे देंव, मकान के काम-बुता चालू होगे. नींव के बाद चौखट हाँ घलो चढ़गे, मकान मा पानी छित के मैं हाँ सुभीता खोली मा गेंव, ता बईठे-बईठे सोचेंव के तीन ठिक मुहाटी हाँ एके लैन माँ होगे अऊ वास्तु शास्त्र के हिसाब से पाछू पेरही, ता सुभीता खोली के चिंतन हा स्थायी काम करिस. सुभीता खोली ले निकल के तुरते दू ठिक चौखट ला ठेकेदार के आये ले पहिली गिरा डारेंव, अतका काट करिस सुभीता खोली के चिंतन हाँ. संगी हो इहु चिंतन हाँ सुभीता खोलीच ले निकल के बहिर आये हवे. आप मन ला कईसे लागिस बताहू. 
 

ता भैया हो ये दे हाँ मोर सुभीता खोली के चिंतन रिहिस, कईसे लागिस थोकिन टिपिया के बताऊ, अऊ सुभीता खोली के गोठ ला अऊ कौनो दिन फेर गोठियाबो.

आप मन के गंवईहा संगवारी
ललित शर्मा अभनपुरिहा

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

रिकिम रिकिम के साहित सेवा अऊ, भोभला बर चना चबेना

संगी हो जय जोहार,


मैं हाँ दू चार दिन पहिले ये बुलाग के सेवा ले हवं. एखर ले पहिले में हाँ नई जानत रहेवं काला बलाग कथे, जानेवं ता महूँ हाँ अपन गोठियाये के खजरी ला मेटाए बर ये दे बूता ला कर डारेवं, मोर डिमाग ले बुलाग के बूता हाँ बुलाग कम, बुलक दे जियादा हवये, हमन हांना कथन ना "मार के टरक दे अऊ खाके सूत जा" तईसने बूता बुलाग के हवे. अपन गोठ ला गोठिया ले तहां काखरो झन सुन. ओ कोती मूड ला पटकन दे. अऊ एक ठन नवा जिनिस देखेवं, इंहा रिकिम-रिकिम के साहितकार हवय, कई झन ता अलकरहा घलोक हे, रात दिन जागते अऊ लिखत रहिथे पढ़त रहिथे, मोला ता लागथे रात के घुघवा हाँ घलोक सूत जात होही पर ये मन नई सुतय, एखर मन के किस्‍सा कहिनी हा रात भर चालू रहिथे, मोर डिमाग हा नई पुरय. रंग-रंग के नावं हवय, कुकुर बिलाई मन के नावं हा घला नई बांचे हे उहू ला धर डारे हवय, में हा इंहा आके अडबड गियान पायेवं.


साहितकार ओला कथय जेन सब के हित ला सोचय, जम्मो समाज के हित के चिंता करे, साहितकार मन के गोठ हा दिन रात चलत रहिथे, कहिथे ना "बईला ला बांध दे घाट मा, अऊ..........ला फांद दे बात मा." अइसनेच बूता हवय जान लुहू गा. हमर गाँव मा घलो एक झन साहितकार हवय, में हा घर ले निकलेवं ता ओला भेंट पायेवं राम-राम जोहार होईस ता पुछेवं कहाँ जात हस गा बिहनिया-बिहनिया झोला धर के, ता वो हा किहिस - का बताववं गा एक ठक गीत लिखहूँ सोचत हंव त घर मा लईका मन उतलईंन करत हे, हांव-हांव के मारे सबे मामला हा गड़बड़ हो जथे, त बांधा पार में बइठ के लिखहूँ, उन्हचे बने  विचार मन उमड़ थे, मै कहेवं बने साहित के सेवा करत हस गा अइसने होना चाही.


एक दिन टिरेन मा बिलासपुर ले आवत रहेंव त मोर सीट के पाछू मा एक झन मनखे हा जोर लगा लगा के कंही पढ़त रिहीस, दू चार ठन टूरा मन जुरियाये रिहिसे, गोठ ला सुन के महूँ हा लहुट परेवं, देखेंव त उहू साहितकार रिहीस ,याहा रोठ के डायरी ला धरे रहय अऊ कविता पढ़त रहय, इहु एक ठक साहित सेवा हवे, में हा पुछेवं, का बाबा टिरेन मा घला कबी समेलन चलत हे, ता वो हा किहिस-काखर अगोरा करबे के तोला कबी समेलन म बलाही अऊ परघा के तोर आनी-बानी के गीत अऊ कविता ला सुनही, ये बेरा मा सरोता मन घलोक हुसियार हो गे हवय, तैं कविता पढ़े ला चालु करबे तो बैईठ  बैईठ कहिके नरीयाथे, तेखर  इही बने १० रूपया के टिकिस कटा लोकल मा, अऊ अपन कविता के पाठ ला चलन दे ,सरोता घलो मिल जाते अऊ कोनो बोरियाथे,  ते हा आघू  टेसन मा उतर घला जथे, मोला अऊ नवा सरोता मिल जथे, सबले बढ़िया मोला इही मंच हा लागथे, मैं  कहेंव धन्य हस बबा तेहां अतक बड बलिदान साहित बर देवत हस.


हमर तिवारी गुरूजी हवय तहां लकठा के इस्कूल में पढाये बर जाथे, ओखर इस्कूल के पाछू मा एक ठक कुंवा हवय, कुंवा हा सुक्खा हवय, कोई १५ हाथ के होही, खाए के छुट्टी के बेरा मा एक बिदयार्थी हा कुंवा मा गिर गे, इस्कूल के छुट्टी होय के बेरा मा गुरूजी हा देखिस एक झन टूरा के बसता हा माढे हवय, अऊ टूरा हा गायब हे, ओला खोजिस, नई पाईस त कुंवा डहार ला देख लौं कहिके गिस, गुरूजी कुंवा मा झांकिस त टूरा हाँ कुंवा मा रिहीस,टूरा हाँ कुंवा में रिहीस अऊ गोटी पथरा ला बल भर उपर डाहर फेंकय, अब ओला हेरे के संसो पर गे गुरूजी हा, सोंचिस लुवाई के टैम चलत हे जम्मो  झन खेत खार मा जाये रहिथे कोन ला बलावं? तभे सुरता आइस गावं में एक झन "बिमरहा" नावं के कवी साहितकार रहिथे, वो हा सिरतोन मा बिमरहा नई ये, कवि बनिस त नावं खोजिस, कोनो नावं नई मिलिस, काबर के सबो नावं ला अऊ कवी मन पोगरा डारे हे त मेहा इही बिमरहा नावं ला धर डरत हवं, अइसे करके ओखर नावं हा बिमरहा परगे, ठेलहा उही मिलही, चल उही ला बलावं, टूरा ला कुंवा ले हेरे मा मदद करही, कहिके गुरूजी ओखरे मेर चल दिस, बिमरहा देखिस गुरूजी आये हवय कहिके खुस होगे, गुरूजी हा अपन पीरा ला बताइस, त बिमरहा कहिथे ये दे गुरूजी बने होगे ते आगेस त अभीच्चे एक ठन नवा गीत लिखे हवंव, थोकिन सुन ले फेर टूरा ला कुंवा ले हेर देबो, अभी वो हा बने सुरकसित जगा में हवय, कांही संसो के बात नईये, जब गुरूजी ओखर खोली मा खुसरिस त देखिस पांच पन्ना के गीत, गुरूजी के ......................गे, अब नई बांचवं दादा कहिके, गीत ला सुनिस अऊ टूरा ला कुंवा ले हेरिस, अइसने घला साहित सेवा होथे.
अब बिसराम दव संगी हो,

जम्मो ला मोर राम-राम जोहार .
आपके गंवईहा संगवारी

ललित शर्मा

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